अभी हाल ही में देश के 23 बड़े रेलवे स्टेशनों की नीलामी की खबर तो सबने सुनी होगी. मगर उसके बाद हम आपको एक ऐसी जानकारी देने जा रहे है. जिसको सुनकर शायद आपके तो कम, मगर रेल कर्मचारियों के तो होश ही उड़ जायेंगे. हमारी जानकारी के अनुसार रेलवे सबसे अधिक कर्मचारी वाला संस्थान है. अभी तक रेलवे अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को हर सुविधा देती आ रही है. मगर नई केंद्र की मोदी सरकार पुरे रेल विभाग को घाटे का सौदा साबित कर धीरे-धीरे निजीकरण करती जा रहे है. यात्री किराया बढ़ाना और सुविधा में कटौती किसी से छुपी नहीं है. ठीक उसी तरह रेलकर्मियों की सुविधायें और नौकरी भी धीरे-धीरे छीनने जा रही है.
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रेलवे बोर्ड से हरी झंडी मिलते ही रेल प्रबंधक वाराणसी ने भारतीय रेल कैंसर संस्थान एवं अनुसंधान केंद्र वाराणसी को एक सप्ताह के अंदर टाटा मेमोरियल केंद्र, मुंबई को सौपने का फरमान जारी कर दिया है. उस नोटिफिकेशन में यह भी लिखा है कि 15 सितम्बर 2017 तक कर्मचारी अपना रास्ता चुनकर बता दें. वे या तो वह टाटा ग्रुप में चले जायें या फिर कहीं और जाने क विकल्प भर दें. अब वर्षों से कार्यरत कर्मचारी एक तरह से बेघर होने की स्थिति में आ गये हैं.
निजी हाथों में सौपें अस्पताल में मुफ्त ईलाज की सुविधा मिलेगा या नहीं?
अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या रेल कर्मचारियों को पूर्व कि भांति निजी हाथों में सौपें अस्पताल में मुफ्त ईलाज की सुविधा मिलेगा या नहीं. मगर मुश्किल ही लगता है. उस अस्पताल में वर्षों से कार्यरत कमचारियों को बाहर का रास्ता दिखने की मंशा के बाद मुफ्त ईलाज की कल्पना करना भी बेबकूफी है. सुरेश प्रभु ने जाते-जाते और पियूस गोयल ने आते-आते एक बार कर्मचारियों को फिर से झटका दे दिया है. इसको समझने की बात है. ट्रेन लगभग पहले जितनी ही है मगर यात्रियों की संख्या में बेतहासा बढ़ोतरी हुई है. किराया दो से ढाई गुना होने के बाबजूद रेल घाटे में चल रहा है. ट्रेन छूटने के बाद रिफंड के लिए टीडीआर समाप्त कर दिया गया. 14 वर्ष से काम के बच्चे के आधे पैसे में आरक्षित सीट की सुविधा छीन ली गयी. लगभग 70 प्रतिशत से अधिक रेगुलर पदों पर एक चौथाई से भी कम सैलरी 5 से 10 हजार मासिक पर ठेका वर्कर को रखा गया. इतना कुछ करने बाद ट्रेन घाटे में है या घाटे में दिखाने का नाटक किया जा रहा है, ताकि रेल जैसी राजस्व देनी वाली कंपनी को औने-पौने दामों में निजी हाथों में दिया जा सके.
रेलवे का किस्तों में निजीकरण क्यों?
इसके बाद बड़ा सवाल यह भी उठता है कि रेल के अंदर कर्मचारियों कि यूनियन की बड़ी फ़ौज है. एक दो यूनियन नहीं बल्कि फलना.. ढेकना... नाम के भतेरे यूनियन बनी है. मगर सरकार कि इस मनसा पर इस तरह से उनका चुप्पी साधने का मतलब कर्मचारी क्या निकाले? यह हो सकता है कि इस किस्तों में निजीकरण की चाल समझा नहीं पाए हों. या फिर अपनी नौकरी सुरक्षित समझ कर चुप हो गए हों. या फिर ये भी हो सकता है कि अलग-अलग होकर विरोध भी कर रहे हों. मगर ऐसे विरोध किस काम का जिससे रेलवे के अधिकारियों और रेलमंत्री के सेहत पर कोई फर्क न पड़े. याद रखें अभी यूनिटी बनाने का समय है. अगर सरकार अपने प्लान में कामयाब हो गई तो किसी की भी नौकरी नहीं बचेगी. चाहे वो अधिकारी हो या कर्मचारी. आप ही सोचिये अडानी अंबानी या टाटा या अन्य कोई भी कम्पनी को जहां 5-8 हजार में कर्मचारी मिल जायेंगे तो वह आपको 50 हजार से 1 लाख क्यों देगा? अभी वो (सरकार) पहले कमर्चारी की नौकरी अधिकारी को आगे करके खायेगा, फिर बाद में अधिकारी को खुद ही काम को रिव्यु करने के बहाने बाहर का रास्ता दिखा देगा. वैसे भी अधिकारी है ही कितने? बांकी आपलोग खुद ही समझदार हैं. खैर यह तो समय आने पर स्पष्ट हो जायेगा. मगर "तब पछताए क्या होत है जब चिड़िया चुंग गयी खेत".
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राजनीति से प्रेरित पत्रकारिता मोदी सरकार का विरोध और कांग्रेस की चाटुकारिता ज्यादा नजर आ रही है
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ReplyDeleteWah modi
ReplyDeleteParliament bhi kisi tata,birla ko de do.fir hamesa ke liye p.m. ki kursi banI rahega..haramkhor
ReplyDeleteसही कहा Mithilesh Kumar जी, अभी भी वर्कर समझने को तैयार नहीं की उनके साथ गलत हो रहा है. उलटे लोग खुश हो रहे कि प्राइवेट में इलाज होगा.
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