इरोम शर्मिला – शायद आज महात्मा गाँधी भी जिन्दा होते और चुनाव लड़ते तो हार जाते

Blog: इस बार पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हुआ, वह सबके सामने है. उसमे गौर करने की बात यह है कि कुछ लोगों ने कुछ खोया तो कुछ लोगों ने कुछ पाया. असम में जो वाकया हुआ वह इतिहास में अमिट हो गया है. कहानी यूँ है कि आज से लगभग 17 वर्ष पूर्व नवंबर 2000 में समाचार में मणिपुर से असम राइफल्स के साथ मुठभेड़ में 10 लोगों के मारे जाने की खबर आई थी. मालोम में हुई फर्जी मुठभेड़ की उस घटना ने 28 साल की एक युवती को भीतर तक हिलाकर रख दिया. 

इरोम शर्मिला: महात्मा गाँधी भी चुनाव हार जाते

असर ऐसा हुआ कि जिस उम्र में लोग आने वाले कल के सपने देखने और उन्हें सच करने में जुटे रहते हैं, उस दौर में वह तपस्या पर बैठ गई. भूखी-प्यासी. अपने लिए नहीं, बल्कि सिर्फ एक इतनी सी मांग लेकर कि जिस मिट्‌टी में वह पैदा हुई, जिसमें पली-बढ़ी, वहां के लोगों पर अत्याचार बंद हो. वह सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटा लिया जाए जो सुरक्षा बलों को सिर्फ शक के बिना पर ही किसी को गिरफ्तार कर लेने और गोली मारने तक की इजाजत दे देता है. वह लड़की कोई और नही बल्कि इरोम शर्मीला थी.

इसके बाद पूरे 16 साल तक इरोम शर्मिला अकेले लड़ती रहीं. इस दौरान उनके तीन ही ठिकाने थे – जेल, अस्पताल या अदालत. इतने साल में वे अपनी मां से भी सिर्फ एक बार ही मिलीं. दुनिया में किसी एक शख्स के संघर्ष का यह इतिहास बन गया. लोग उन्हें ‘आयरन लेडी’ (लौह महिला) कहने लगे. आदर्श मानने लगे. मगर सरकार तो ‘सरकार’ थी न. उसने कुछ नहीं माना. सो, धुन की पक्की इस महिला ने सोचा कि वह खुद सरकारी राज-तंत्र में शामिल होकर लड़ाई आगे बढ़ाए. सो, अगस्त 2016 में इरोम शर्मिला ने भूख हड़ताल खत्म कर ऐलान किया कि वे चुनाव लड़ेंगी. आम लोगों से मिलने वाले प्यार-सम्मान पर उन्हें कुछ ज्यादा ही भरोसा जो था.
लेकिन 11 मार्च 2017 को इस भरोसे का नतीजा सामने आ चुका है. इरोम शर्मिला चानू को मणिपुर की थोबल सीट से सिर्फ 90 वोट ही मिल पाए. चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों में वे आखिरी नंबर पर रहीं. जाहिर है, जमानत भी जब्त हो गई. अभी तीन दिन बाद ही यानी 14 मार्च को 45 साल की हो रहीं इरोम को उनके अपने लोगों से जन्मदिन का यह तोहफा मिलना किसी सदमे से कम नहीं रहा होगा.
तभी तो चुनाव नतीजों के तुरंत बाद उन्होंने अपनी पीड़ा जताई, ‘मैं जैसी हूं, उस तरह लोगों ने मुझे स्वीकार नहीं किया. मैं खुद को ठगा हुआ महसूस करती हूं. मैं अब राजनीति से बुरी तरह थक चुकी हूं. इसलिए अगले कुछ दिन तक आश्रम में रहकर आराम करना चाहती हूं.’ कहना न होगा कि अपने आगे के संघर्ष में वे एक बार फिर अकेली नजर आ रही है.
क्या यही जनता है जिसने कभी अहिंसा की राह पर चलने वाले महात्मा गाँधी को बापू का दर्जा दिया मगर दूसरी तरफ उनके हक़ के लिए अकेली सिस्टम के खिलाफ लड़ने वाली इरोम को मात्र 90 वोट का देकर अपमानित ही नही किया बल्कि जनता ने यह भी साबित किया कि आज की राजनीती में त्याग कि नही बल्कि चमक दमक कि जरुरत है. देश की बहादुर बेटी हमें गर्व है तुमपर, अपना मन छोटा न करो, क्योकि आज का जो माहौल बनाया गया है ऐसे समय में शायद आज महात्मा गाँधी भी जिन्दा होते और चुनाव लड़ते तो हार जाते.
आज हम अपनी स्थिति बेरोजगारी, ठेकेदारी, मंहगाई, लूट की खुली छूट के लिए खुद जिम्मेदार है. सरकार चुनने के समय जाति-धर्म, ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा देखकर वोट देतें है. जब वह सरकार हमारे (जनता) के लिए काम नही करती तो सरकार को कोसते है. आज अच्छे लोग को हम खुद राजनीती में आने से रोकते है और बाहुबली, बलात्कारी, हत्यारा को वोट देकर अपना नेता चुनते है. जब तक हम अपने इस सोच को ठीक नही कर लेते, बदलाव बहुत दूर है.
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