नई दिल्ली: आजकल गाँव से आकर शहर में कमाने आने का चलन सा हो गया हैं. जिसका कारण चाहे गाँव में रोजगार की कमी या फिर खेती के प्रति सरकार की उदासीनता या फिर मौसम की मार से किसानों का आकर्षण कम होना भी हो सकता हैं. जिसके कारण किसान खेत को ठेका पर देकर शहर का रुख कर रहे हैं. शहर आकर कोई रोजगार मिले न मिले मगर मेहमत मजदूरी का काम से लेकर सिक्युरिटी गार्ड तक का काम थोड़ी कोशिश करने के बाद मिल जाता है. मगर, देश की राजधानी दिल्ली में Salary मांगी तो ठेकेदार ने मारपीट कर मुँह नोचा और दाँतों से काट लिया.
शहर की चमक-दमक और बेरोजगार युवाओं के मजबूरी का फायदा उठाने में न तो कॉरपोरेट्स पीछे रहता और न ही हम आप जैसे लोग. गाँव से आने वाले चाहे घर में काम करने वाले मजदूर हो या रिक्शा रेहड़ी लगाने वाला या किसी अन्य रूप में हो. जिसको जहां मौक़ा मिलता है वह इन सीधे मजदूर को वह जमकर लूटता है. अब चाहे वो हीरा चोर हो या खीरा चोर, भाई चोर तो चोर होता है. कल एक ऐसे ही गाँव के साधारण सा दिखने वाला कम पढा लिखा नौजवान मजदूर से मुलाक़ात हुई. उसकी कहानी सुन कर रोंगटे खड़े हो गए. Salary मांगी तो ठेकेदार ने मारपीट की बात सुनकर सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या सचमुच दिल्ली दिल वालों की हैं?
संजय जो कि बिहार के पूर्वी चंपारण के मोतिहारी जिला से लगभग 1 वर्ष पहले दिल्ली में अपने परिवार के साथ आया. मगर परिवार के सदस्य की बिमारी में 50 से 60 हजार रुपया खर्च होने और मंहगाई की मार नही झेल पाने के कारण दुबारा से गाँव चला गया. लगभग 7 महीने पहले दुबारा से अकेले आकर दिल्ली मेट्रो के रजौरी गार्डन में ठेकेदार (सरला इंटरप्राजेज, सरोजनी नगर मेट्रो विधुत प्लांट, नई दिल्ली -23) के द्वारा अगस्त 2016 में 600/- (8घण्टे) दैनिक वेतन पर पत्थर कारीगर के पद पर काम करने लगा.
जिसके बाद संजय के अनुसार ठेकेदार ने पिछले 7 महीने में केवल खाने पीने का खर्चा के अलावा कुछ भी नही दिया. संजय ने भी सोचा कि जब घर जाने लगूंगा तो इकट्ठा ले लूंगा. उसको यह पता तक नही था कि उसकी यह सोच उसको एक दिन मुसीबत में डाल देगा.
26 फ़रवरी 2017 को शाम 8 बजे संजय् को पैसे की जरूरत पड़ी तो ठेकेदार के आदमी पिंटो से पैसे की मांग की तो उसने पैसा देने से साफ मना कर दिया. जिसका विरोध करने पर ठेकेदार के आदमी पिंटो ने 4 गुंडों की मद्त से संजय की बुरी तरह पिटाई कर दी. जिससे संजय को काफी चोटें आई और तो और ठेकेदार के गुंडों ने जानवरों की तरह बर्ताव करते हुए मारपीट के दौरान अपने नाखूनों का वार कर संजय का मुंह ही नही नोचा बल्कि उसके हाथ को दांतों से काट भी लिया. वो तो भला हो उन राहगीरों का जो संजय की चीख- पुकार सुनकर उन दरिंदो के चंगुल से बचाया.
जिसके फलस्वरुप संजय ने 100 नंबर पर कॉल कर पुलिस से मदद की गुहार लगाई. मगर पुलिस ने मेट्रो व् उसके ठेकेदार के प्रभाव के कारण अपना कर्तव्य को परे रखकर उसके जख्म को अंदेखा कर मजदूर का मामला बताकर लेबर कोर्ट जाने की सलाह दे डाली. पुलिस ने अस्पताल जाकर उसका उपचार कराने का जहमत भी नही उठाया. जिसके बाद दर्द से परेशान संजय पास के सरकारी अस्पताल के एमरजेंसी विभाग में अपने ईलाज के लिए पहुंचा.
मगर कम पढ़ा मजदूर होने का फायदा वहाँ के डाक्टरों ने भी उठाया. उसका ईलाज तो कर दिया, मगर पर्चा रख लिया. मौके पर मौजूद डॉक्टर ने कहा कि पर्चा आर रिपोर्ट सम्बंधित थाने का अधिकारी ले जायेगा. जबकि नियम के अनुसार अगर इस तरह का कोई मरीज अस्पताल जाता है कि डॉक्टर अस्पताल में मौजूद पुलिस के समक्ष उस मरीज का एमएलसी करवाता है. जबकि सरकारी विभाग ने नियम को ताक पर रख दिया.
नियम के अनुसार अगर किसी के साथ मारपीट की गई हो या किसी और तरह से वह जख्मी हुआ हो और उसके पास पुलिस थाने जाने का वक्त नहीं है तो वह सीधे अस्पताल भी जा सकता है. अस्पताल में पहुंचने पर अस्पताल प्रशासन खुद ही पुलिस को इस बारे में सूचित करता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट में साफ कहा है कि जब भी कोई घायल अस्पताल पहुंचे तो पहले उसका इलाज शुरू किया जाए. बाद में पुलिस को सूचित कर दूसरी औपचारिकताएं पूरी की जाएं. इस जजमेंट के बाद से अब घायल का पहले इलाज शुरू होता है और इस दौरान पुलिस जब वहां पहुंचती है तो शिकायती (घायल) से बातचीत करती है और फिर अस्पताल में घायल की एमएलसी तैयार की जाती है.
खैर संजय ने अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने की ठान ली है. मगर सवाल यह है कि हमारे देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस और अस्पताल के कर्मी इतने संवेदनहीन हो गये हैं? क्या उनका कर्तव्य और अधिकार लोगों के प्रभाव को देखकर घटता बढ़ता रहता है? अक्सर देखा हूँ और महसूस किया है कि जब मजदूर वर्ग से जुड़ा कोई भी मामला हो तो सरकार हो या प्रशासन गूंगे- बहरे या यूँ कहें मुर्दे बन जाते हैं.
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