बैंकर्स के हालातों व उनकी तत्कालीन परिस्थितियों पर भी प्राइम टाईम निकालें

आज हर आदमी की जरुरत है पैसा. सुबह से शाम और अब तो इसी पैसा को कमाने के लिए रात तक हो जाती है. अगर सरकार बैंक से संबंधी कोई भी फैसला लेती है तो इसका आप और हम पर बाद में मगर मगर बैंकर्स पर तुरंत असर पड़ता है. चाहे वह KYC हो या जनधन योजना फिर चाहे आधार लिंक करने कि बात हो या फिर पैसे के आपातकाल नोटबंदी…यह सब झेलना पड़ता है एक बैंकर्स को ..सरकार उलटे-पुल्टे नियम बना कर बैंकर्स के मथ्थे मढ़ देती है.

बैंकर्स के हालातों व उनकी तत्कालीन परिस्थितियाँ

जिसके बाद बैंकर्स ही आपके हमारे तीखे सवालों और कभी-कभी तो गुस्से में हमलों का शिकार तक हो जाता है. जिसको हम हमेशा नजरअंदाज कर देते है. आइये आज ऐसे ही बातों पर एक नजर डालते हैं. यह कहानी सबको पढ़ना जरुरी है ताकि अगली बार से जब हम आप बैंक जाये तो बैंकर्स के इन कठिनाइयों का ख्याल कर उनसे सलीके से पेश आयें. साथ ही मिडिया के लोगों से भी अनुरोध है कि यदि सरकार के दुआ सलाम से फुर्सत मिल जाये तो कभी बैंकर्स के हालातों और उनकी तत्कालीन परिस्थितियों पर भी प्राइम टाईम निकालने की कृपा करें.

बैंकरों ने जनधन खाते खोले क्यों?

सरकार ने जनधन के द्वारा ग्रामीण लोगों इसलिए जोड़ा ताकि उनतक बैंक की सुविधाएं पहुंच सके और वो बैंको से जुड़ सके. इस मुहिम में बैंकरों ने तन-मन से वो सारे खाते खोलकर गिनीज बुक में रिकॉर्ड बना डाला है. मगर इसके बाद बैंकरों को कोई रेस्पेक्ट नही मिली और तो और आज ये हाल है कि उनकी सेफ्टी की भी किसी को परवाह नही. इसका दावा बैंक के ही एक कर्मचारी ने की है.

खाता तो खुल गया बैंक में मगर.. 

आज जनता का यह हाल हैं कि बैंक में उनका उनका खाता तो खुल गया. मगर मिनिमम बैलेंस के चक्कर में उनके खून पसीने और मेहनत से कमाये रुपये 50 से 100 काट कर SBI ने 238 करोड़ कमा लिया है. पता नहीं लोगों के कैसे-कैसे कर पैसे जोड़े होंगे. यह चोरी नहीं तो क्या है? इसका मुख्य कारण बैंकों के एनपीए खातों से हुए नुकसान की भरपाई करना है. अब आप ही बतायें कि बैंक का नुकसान बड़ी-बड़ी कंपनियों के कर्जा नहीं चुकाने और बैंक का पैसे लेकर भाग जाने सेहुआ है या इन गरीब लोगों से? आखिर सरकार ही प्रॉब्लम क्या है? क्या देश का कानून सच में अंधा हो गया है कि करे कोई भरे कोई वाला सिंद्धांत लागु हो रहा है.

आप सभी को याद होगा कि नोटबंदी की वजह क्या बताई गई थी परंतु वक़्त के साथ वजह भी बदलती चली गयी. यदि नहीं याद है तो याद कीजिये ….
  • इससे काला धन से आजादी मिल जाएगी और लगभग 1 से 1.5 लाख करोड़ रुपए मूलधारा में नही आ पाएगी और इसका कुछ हिस्सा सरकार RBI को देगी.
  • इससे डिजिटल इंडिया को बढ़ावा मिलेगा.
  • टैक्स चोरो से मुक्ति मिलेगी.
  • टेरर फंडिंग रुकेगी.
  • फेक कर्रेंसी पे लग़ाम लग जायेगी.
  • नक्सल और आतंकवादी गतिविधि की कमर टूट जाएगी

मगर नोटबंदी से क्या रिजल्ट आया इसका रिजल्ट सबको पता है कि

  • सारे नोट लगभग 99.9% नोट मूलधारा में आ गए मतलब इस माध्यम से सारे नोट ब्लैक से व्हाइट हो गए
  • लाखों नगदी काम धंधे चौपट हो गए
  • लाखों लोग बेरोजगार हो गए
  • डेढ़ सौ के करीब लोग बैंक के लाईन में मर गए
  • फेक कर्रेंसी कितनी मिली ये आपको मालूम ही होगी
  • नक्सल और आतंवाद कितना कम हुआ ये तो आप देख ही रहे हैं.

अब साहब ये बोल रहे है कि पैसे मार्किट में आ जाने से रुपये व्हाइट नही हो जाते हैं. सारे बैंक में पड़े हैं और सारा हिसाब IT डिपार्टमेंट के पास रेकॉर्ड हो रहा है. यह क्या बेफजूल बाते सिर्फ इधर- उधर जुमले फेकने से कुछ नही होगा. साहब को कोई जाकर बताये कि हर बार मुद्दा बदलने से बदलाव नही आएगा. इससे RBI को भी नुकसान हुआ फायदा सिर्फ तो सिर्फ बड़े बड़े रसूखदार लोगो को ही हुआ क्योंकि न तो वो लाइन में लगे और इसके उलट उनके रुपये व्हाइट हो गए. मारे तो गए बेचारे गरीब, रोजगार भी गया और पैसे भी गया और तो और कुछ लोगो के परिवार के लोगों को भी गवां दिया.

अब यह सब जानने के बाद असली मुद्दे यानि बैंकर्स भाई लोगों के बारे में बात किया जाये. गुजरात में बैंक ऑफ इंडिया में क्लर्क के पद पर कार्यरत शुभम दोस्त बताते है कि कुछ भक्त टाइप लोग और मिडिया कहती है कि कि बैंकर सिर्फ 6:30 घन्टे ही काम करते है. जो कि सरासर झूठ है. उन्होंने कहा कि बैंकर सुबह 10 बजे से रात्रि के 7 या 8 बजे तक काम करते हैं. यहां तक कि नोटबन्दी, जनधन योजना, फसल बीमा के दौरान तो रात के 11 बजे तक काम किया गया है और तो और उन्होंने घर जाकर भी बैंक का काम किया है परफिर भी हम बैंकरों का शोषण किया जाता है.

उन्होंने बात करते हुए बताये कि न सैलरी अच्छी, न सुरक्षा, न काम के घंटे, न ही प्रबंधन सपोर्ट जबकि ऊपर से सरकार एवं प्रशासन का दबाव बैंक की मूल काम करने के बजाय सरकारी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने का रहता है. उन्होंने आगे कहा कि क्या बैंकिंग की यही परिभाषा है? अगर नही तो फिर क्यों ये काम बैंकों पे थोपी जा रहा है और अगर बैंक को नुकसान होता है तो सरकार उसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर क्यों डाल देती है. जैसे कि हमें ही काम करने की पूरी आजादी/ऑथोरिटी दी गयी थी. जब काम वो अपनी योजना के तहत करवाते और कुछ अच्छा हुआ तो इसकी वाह-वाह वो खुद और खराब हुआ तो हमारी गलती. क्या ये सही है?
दूसरी अगर अटल पेंशन योजना , फसल बीमा योजना, सुरक्षा योजना, जीवन बीमा योजना सब काम अगर बैंक ही के लेगा तो फिर बीमा कंपनियों का क्या काम? इन्हे बंद कर और इनकी जगह इनके काम को अंजाम दे रहे बैंकर को उनका मेहनताना और क्रेडिट दिया जाये. आज बैंक के कलर्क की सैलरी 18,000 है. जो कि केंद्रीय कर्मचारियों के चपरासी कि 21,000 सैलरी से भी से भी कम है.
हमें नहीं लगता है कि स्नातक पास क्लर्क 8वीं पास चपरासी से कम काम करता होगा या काम लायक होगा. शायद ऐसे समय के लिए ही एक तरह से “अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा” वाली कहावत बनी हो. आगे शुभम ने बताया कि एक समय था, जब बैंक के कर्मचारियों की सैलरी केंद्रीय कर्मचारियों से ज़्यादा थी क्योंकि ये कहा जाता था कि बैंकर हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं. मगर आज रीढ़ की हड्डी टूट गयी है. यह सब सुन कर एक बार तो मन किया कि शुभम को बोलूं कि “बस कर पगले रुलाएगा क्या”? मगर खुद को रोक लिया.

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उन्होंने आगे आरोप लगाया कि क्यों बैंकरों के साथ हमेशा सरकार, मैनेजमेंट, यूनियन लीडर्स हमेशा कुछ मुद्दों से समझौता कर अपना पीठ अपना पीठ थपथपा लेते है. जबकि बैंकर इनसे कही ज्यादा के हकदार हैं. सरकार कहती है कि बैंक के स्केल 1 ऑफिसर सेंट्रल गवर्नमेंट के क्लास ए के अधिकारी के बराबर होता है. मगर सैलरी के मामले में गैर बराबरी क्यों? उन्होंने एक बात सीधे तौर पर कह दी कि सिर्फ बोलने से बराबर नही होगा बल्कि उस अनुसार वेतन, पावर और इज्जत देने से होगा.

इस सभी बातों से स्पष्ट होता है कि अगर शुभम का आरोप सही है तो सरकारी कमर्चारी  भी गुलामों के तरह बस काम किये जा रहे हैं. बेरोजगारी एक ऐसा भय है जो उठती आवाज को भी दबा देता है. मगर अति होने से तब भी विद्रोह होता है और होगा. यही चक्र है..जो चलता रहेगा.
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